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मंगलवार, 12 जनवरी 2016
बचपन की बुनियाद
बुधवार, 2 दिसंबर 2015
बचपन की बुनियाद
श्रीमती प्रतिभा सिन्हा, माननीय अवर न्यायाधीश, बिहार न्यायिक सेवा का लेख ‘ताकि बच सके बचपन’ को पढ़ते हुए भावुक होना सहज स्वाभाविक है। इस लेख को पढ़ना सहज भावुक होना तो है, लेकिन खासियत है कि यह महज भावुक होना नहीं बल्कि विचार के लिए प्रेरित होना भी है और थोड़ा ही सही पर उदास होना भी है। इस लेख को पढ़ने के बाद कुछ बातें जो कहना चाहता हूँ उसे ‘ताकि बच सके बचपन’ के अनुक्रम में पढ़े जाने का अनुरोध है, न कि किसी व्यतिक्रम या प्रतिक्रम में। बचपन के बचे रहने का आशय बच्चों के बचाव के अलावे मनुष्य मात्र के मन में बचपन की उन्मुक्त, निश्च्छल, पूर्वग्रह रहित, जिज्ञासु मन के बचे रहने तक विस्तृत है।
जीवन की बुनियाद बचपन में पड़ती है। जिस देश का बचपन प्रताड़ित और भूखा हो उस देश का बहुत अंधकारमय होता है। दुनिया के कई देशों की जितनी कुल आबादी है, उससे अधिक बड़ी संख्या तो हमारे देश में बाल श्रमिकों की है। अध-बीच पढ़ाई छोड़ छोटे-छोटे होटलों, ढावों, चाय दुकानों, मोटर गैरेजों, साइकिल मरम्मती की दुकानों, पार्कों, बस पड़ावों, गलियों, बाजारों में छोटे-मोटे सामानों की फेरी लगाते, खेती-बारी के अनुषंगी कामों, अर्थात यहाँ-वहाँ कहीं भी बचपन को खोते जा रहे या खो चुके बच्चे दिख जा सकते हैं। इसी तरह भीख माँगनेवाले, कचरा बीननेवाले बच्चे कहीं भी, कभी भी किसी को दिख जा सकते हैं। बच्चों का इस तरह दिख जाना हामारा राष्ट्रीय शोक है, इस राष्ट्रीय शोक में झंडा झुके या न झुके नजर जरूर झुक जाती है। विडंबना यह कि जिन नौनिहालों के पैरों को ‘ठीक से चलना’ नहीं आता उन नौनिहालों के कोमल हाथ को घर चलाने की सर्वाधिक कठिन जिम्मेवारी सम्हालनी पड़ती है।
ऐसे अवसरों पर, संभवतः 1988 में पटना से प्रकाशित किसी पत्रिका में छपी, अपनी कविता अपने ही कान में गूँजने लगती है। बहुत भयावह है यह गूँज और इसकी अनुगूँजें! यकीनन समाज में ऐसे लोग बचे हुए हैं जिनके पास कान है, धड़कता हुआ दिल है और आँख में बचे हुए आँसू हैं। आँख में बचे हुए हैं आँसू इसीलिए बचे हुए हैं सपने। जिन आँखों में बचे हुए सपने, जिनकी पुतलियों की मछली अभी भी स्वार्थ के महाजाल में बुरी तरह फँसी हुई नहीं है कविता उन आँखों से बार-बार मुखातिब होने के लिए बेचैन रहती है----
आज भी छोटे-छोटे बच्चों को
माँजते हुए
चाय की प्याली देखता हूँ
देश का भविष्य
औंधी हुई कराही-सा लगता है
काले-धन की उगाही
पाँच सितारा होटल
राजधानी और गाँव-बेकारी-बेकसी
भुखमरी को
आजादी के तराजू पर
तौलने से आम आदमी का चेहरा
गुस्से से लाल होने के पहले
भय से सफेद हो जाता है
क्योंकि प्रगति का चक्का
अपने मूल रूप में सचमुच में
स्तंभ का हिस्सा है
और हरियरी महज धोखा है
आम आदमी का चेहरा
अपने बारे में
जानने के बाद
राष्ट्रीय शोक में
झुकाये गये झंडे की तरह कंधे से लटक जाता है।
राष्ट्रीय शोक में झुकाये गये झंडे की तरह लटके हुए कंधों के अशक्त बाजुओं में न्याय और आजादी के तराजू को उठाने की ताकत ही कहाँ बचती है!
1994 तक आते-आते राजेश जोशी की कविता के आइने में दिखने लग जाता है कि सारी चीजें महफूज हैं अपनी जगह और बच्चे काम पर जा रहे हैं...
‘बच्चे काम पर जा रहे हैं
हमारे समय की सब से भयानक पंक्ति है यह
भयानक है इसे विवरण की तरह लिखा जाना
लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह’
हमारी कायरता कहिए या और कुछ, यह सच है कि हम इसे ‘सवाल की तरह’ नहीं बल्कि ‘विवरण की तरह’ ही लिखते भी रहे, पढ़ते भी रहे। आँसू के बीच सिसकते रहे सपने और 2004 तक आते-आते ‘पानी का स्वाद’ काफी बदल गया और सपना में ही सपनों की घिग्घी बँधने लगी। नीलेश रघुवंशी की कविता कहती है—
‘खोई हुई चीजें और बचपन में देखे सपने याद आते हैं बार-बार
सपने --- सपनों में ही बाँ देते थे जो घिग्घी’।
संभावनाओं को अवरुद्ध करना सब से बड़ी हिंसा है और संभावनाओं को अवरुद्ध होने से बचा लेना सबसे बड़ी अहिंसा। बचपन की संभावनाओं को बचा नहीं पाना हिंसा में लिप्त होने की निष्क्रियता के अपराध में शामिल होना है। बहरहाल, कानून है, समाज है, कविता है, संस्कृति है ---- बच्चों के सिकुड़ते भविष्य और बचपन की बुनियाद के खोलेपन में फँसती जा रही सभ्यता को बचाने के लिए विकास के महानैपथ्य से निकल, हर हाथ के आगे बढ़ने की जरूरत है, ‘ताकि बचा रहे बचपन’। क्या कहते हैं, कैलास सत्यार्थी!
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