साहित्य में जीवन के सामाजिक-आर्थिक प्रसंगों की झलक देखने की कोशिश की जानी चाहिए लेकिन साहित्य को इस झलक से सीमित कर देना उचित नहीं है। साहित्य प्रथमतः और अंततः वैयक्तिकता का निर्वैयक्तिक प्रसंग है। इस प्रथमतः और अंततः के बीच के निर्वैयक्तिकता के वैयक्तिक संदर्भों से ही पाठकों को उनका अपना पाठ, नितांत अपना पाठ उपलब्ध करवा सकने की क्षमता के कारण साहित्य महत्वपूर्ण होता है। इस वैयक्तिक पाठ के सामाजिक पाठ में बदल जाने से साहित्य सार्थक होता है। साहित्य की सामाजिकता व्यक्ति के समाज में समवेत होने की निष्पक्ष प्रक्रिया है।