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गुरुवार, 5 नवंबर 2015

देश भयानक दौर से गुजर रहा है

देश भयनाक दौर से गुजर रहा है
स्थिति के दिन प्रतिदिन भयावह होते जाने की आशंकाएँ गहरी होती जा रही है। अदलातों की प्रतिष्ठा पर मँडराते हुए खतरों को भाँपकर ही, अदलात की प्रतिष्ठा को कायम रखने के लिए सेना को बुलाये जाने के विकल्प पर सोचा जा रहा है। सेना बुलाये जाने के विकल्प पर सोचे जाने की बात में बहुत बड़ा संकेत है। इस संकेत को बहुत ही ध्यानपूर्वक और शांत मन से पढ़ा जाना चाहिए।
हमारे देश में जनतांत्रिक व्यवस्था है। चुनी हुई सरकार है। बहुप्रशंसित नौकरशाही है। दक्ष और सक्षम पुलिस एवं सुसंगठित शस्त्रवाहिनी है। भूख, गरीबी, अभाव और छल के बावजूद, आम तौर पर जाति, धर्म, लिंग, नस्ल की किसी भी बाध्यता से पूरी तरह मुक्त वयस्क मताधिकार के अधिकार से सज्जित मतदाता मंडल है। मौलिक अधिकारों से सुरक्षित, शांत एवं अनुशासित नागरिक जमात है। सांविधिक शक्तियों और अधिकार से समृद्ध निरपेक्ष और स्वतंत्र निर्वाचन आयोग है। स्वस्थ एवं स्वशासी निकाय हैं। सब कुछ तो हर भरा दिख रहा है। इन सब के रहते, आखिर अदालत की प्रतिष्ठा को खतरा किस से है? अदलात की प्रतिष्ठा के खतरे में होने का मतलब क्या होता है?  तो क्या अदालत की प्रतिष्ठा के किसी खतरे में होने की चिंता में कुछअग्रकथन या  अतिकथन का भाव है! इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि कुछ लोगों की नजर में अदालत की प्रतिष्ठा के किसी खतरे में होने की चिंता में अतिकथन का ही भाव है। लेकिन ऐसा है नहीं।
सब कुछ के हरा-भरा होने के बावजूद खतरा तो है। हमारे देश में जनतंत्र की जड़ें बहुत गहरी है लेकिन इसके फल भी बहुत ऊँचे लगते हैं, इतने ऊँचे कि आम आदमी के हाथ के वहाँ तक पहुँचने की बात तो एक तरफ, निगाह भी वहाँ तक नहीं पहुँच पाती है। राजनीतिक दल समेत विभिन्न झुंडों और गुंडों के गैर-कानूनी इरादों और कार्रवाइयों पर रोक लगाने की बात तो दूर कई बार जनतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकारें भी गुपचुप या खुले तौर पर इन झुंडों और गुंडों को समर्थन ही नहीं देती, बल्कि अगुवाई भी करती नजर आती है। पुलिस और नागरिक प्रशासन की कानूनी कार्वाइयों से बेखौफ और लापरवाह, ये झुंड जिस तरह ददनाते फिरते हैं; कभी भी और कहीं भी किसी को भी किसी भी मामले में अपने निशाने पर ले लेते हैं, यहाँ तक कि हत्या भी कर बैठते हैं, भयावह है यह सब। इधर इस तरह की घटनाओं की बाढ़-सी आ गई है। असहमति को विरोध, फिर विरोध को राष्ट्रद्रोह बताकर असहमति के किसी भी स्वर को हंगामे के माध्यम से कुचल देने की शैली को बड़ी तत्परता से ये झुंड लागू करते हैं। जनप्रतिनिधियों के राजनीतिक मिजाज और सरकार के इशारे को समझते हुए पुलिस और नागरिक प्रशासन कहीं अति-सक्रिय हो जाती है तो कहीं निष्क्रिय बनी रहती है।
विभिन्न क्षेत्र में सक्रिय बहुत सारे प्रतिष्ठित लोग सरकार का ध्यान आकृष्ट करने के लिए पुरस्कारों और प्रशस्तियों और सरकारी स्वीकृतियों को लौटाने समेत अपनी असहमतियों को कई अन्य विधि-सम्मत तरीके से भी अभिव्यक्त करने की कोशिश कर रहे हैं। मुख्यतः शासक दल के साथ औपचारिक-अनऔपचारिक ढंग से जुड़े हुए लोग तुरत-फुरत इसे सत्ता की राजनीति से जोड़कर देखने-दिखाने या व्याख्यायित करने पर आमादा हो जाते हैं। यह भयावह है। अदालत की प्रतिष्ठा को खतरा इस एटीट्यूड पर जनतांत्रिक सरकार और उसके विभिन्न निकायों के रवैया तथा आपराधिक खामोशी से है। अदलात की प्रतिष्ठा के खतरे में होने का मतलब होता है, कानून के शासन का खतरा में होना। कानून के शासन को सुनिश्चित करने के लिए सेना की सेवा का विकल्प उपलब्ध भले हो लेकिन नागरिक जीवन की दृष्टि से यह निरापद तो कतई नहीं है। कानून के शासन को सुनिश्चित करने के लिए सेना की सेवा का विकल्प अपनाने के कई आयाम हैं और इसका मतलब जनतांत्रिक सत्ता को संकुचित करना भी है। अपनी सर्व-स्तरीय सुरक्षा के लिए ही जनता जनतंत्र में जनतांत्रिक सत्ता का निर्माण करती है। कितना भयावह होगा वह दौर जब खुद के निर्मित जनतांत्रिक सत्ता के ही अत्याचार से बचने के लिए जनता को कहीं और शरणागत होना होगा। जो भी हो, हालात अच्छे नहीं हैं। इस टकराव में बहुत भटकाव हैं। जिन्हें डर नहीं सता रहा वे आनंद मना सकते हैं लेकिन अदलात की प्रतिष्ठा के खतरे में होने की बात में थोड़ा अग्रकथन हो तो हो, अतिकथन तो बिल्कुल ही नहीं है। अर्थात, यह तो उस दौर की शुरुआत है।

बुधवार, 4 नवंबर 2015

क्या है सहिष्णुता और असहिष्णुता!

आजकल भारतीय परिदृश्य में सब से ज्यादा चर्चा असहिष्णुता और सहिष्णुता पर हो रही है। असहिष्णुता और सहिष्णुता का सवाल अचानक महत्त्वपूर्ण हो कर भारतीय मन को बहुत जोर से मथ रहा है। जाहिर है, इसे गहराई से समझना होगा। क्या है सहिष्णुता? क्या शोषण और अन्याय को बर्दाश्त करना सहिष्णुता और उनका किसी भी स्तर तथा प्रकार से विरोध या प्रतिकार की चेष्टा असहिष्णुता है? मुझे लगता है यह सभ्यता का बहुत ही अंदरुनी सवाल है और इस पर आरोप की शैली में उत्तेजित होकर विचार करना समस्या की समझ को उलझाव में ही डालता है। इसलिए, बिना किसी आरोप और उत्तेजना के दबाव में इस स्थिति को समझने की कोशिश जरूरी है।
पहली बात तो यह कि असहिष्णुता और सहिष्णुता का सवाल अचानक साल-दो-साल में उभरकर  महत्त्वपूर्ण हो गया है, ऐसा मानना न सिर्फ ऐतिहासिक रूप से गलत है बल्कि इसके प्रति हमारे नजरिया के अगंभीर होने का सूचक भी है। हमें नकारात्मक सहिष्णुता और सकारात्मक असहिष्णुता के मर्म को समझना होगा। सहिष्णु भारतीय मन सदियों से शोषण और अन्याय को बर्दाश्त करता रहा है। शोषण और अन्याय को बर्दाश्त करना नकारात्मक सहिष्णुता का उदाहरण है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन या विश्व के कई आंदोलन सकारात्मक असहिष्णुता के उदाहरणों से भरे पड़े हैं। जी हाँ, विभिन्न क्षेत्र के पुरस्कृत लोगों के द्वारा पुरस्कारों का लौटाया जाना भी असहिष्णुता कै उदाहरण है, जी सकारात्मक असहिष्णुता के उदाहरण।
विषमता आधारित सभ्यता में स्वाभाविक रूप से समुदायों और व्यक्तियों के मन में अपनी स्थितियों और प्राप्तियों को लेकर लगातार असंतोष पनपता रहता है। असंतोष की गहरी मनःस्थिति में सकारात्मक असहिष्णुता की प्रवृत्तियाँ सक्रिय होती रहती हैं। विषमता आधारित सभ्यता की किसी भी शासन-प्रणाली और पद्धति में शासन और सत्ता का यह प्राथमिक कर्त्तव्य होता है कि वह समुदायों और व्यक्तियों के मन में उनकी स्थितियों और प्राप्तियों को लेकर लगातार उत्पन्न हो रहे असंतोष को लगातार दूर करते हुए सकारात्मक असहिष्णुता की बढ़ती प्रवृत्तियों की सक्रियताओं को रोकने की कोशिश करे। ध्यान रहे, ऐसा इसलिए कि सकारात्मकता असहिष्णुता की सहज संगी नहीं होती है और कभी भी असहिष्णुता का साथ छोड़ दे सकती है। जनतंत्र सकारात्मक असहिष्णुता की बढ़ती प्रवृत्तियों की सक्रियताओं को रोकने की दृष्टि से ही लगातार महत्त्वपूर्ण बना रहा है। विषमता आधारित सभ्यता में समुदायों और व्यक्तियों में जायज असंतोष और सकारात्मक असहिष्णुता का भाव स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता रहता है इसलिए शासन-प्रणाली और पद्धति को प्रयास करते रहना पड़ता है कि सकारात्मकता किसी भी हाल में असहिष्णुता से विच्छिन्न न होने पाये, अन्यथा नागरिक जीवन किसी भारी उथल-पुथल या रक्तपात के दौर में पहुँच सकता है। सकारात्मकता किन्हीं परिस्थितियों में यदि असहिष्णुता से विच्छिन्न हो जाती है सहिष्णुता की नकारात्मकता भी साथ छोड़ देती है। रणनीतिक तौर पर, शोषण मुक्ति और न्याय के आश्वासन के साथ विषमता आधारित व्यवस्था में शासन के लिए जरूरी होता है कि सहिष्णुता की नकारात्मकता को बनाये रखने के लिए असहिष्णुता की सकारात्मकता को समझे और सम्मान दे। भारत में अब तक की सरकारें यह काम बड़ी दक्षता से करती आई हैं! कहना न होगा कि ऐसा लगता है कि इस समय भारत की जनतांत्रिक व्यवस्था सहिष्णुता की नकारात्मकता और असहिष्णुता की सकारात्मकता दोनों को एक साथ समाप्त करने पर आमादा है, कम-से-कम इस प्रक्रिया को रोकने के प्रति गंभीर नहीं है। व्यवस्था के इस एटीट्यूड को प्रति गहरा असंतोष पनप रहा है। जाहिर है, सहिष्णुता की नकारात्मकता और असहिष्णुता की सकारात्मकता के फैलाव को आर्थिक समेत अन्य सामाजिक-सामुदायिक क्षेत्र को अपनी चपेट में लेने से रोक पाना कठिन होता जायेगा, यदि बहुत जल्दी पूरी शक्ति के साथ व्यवस्था के इस एटीट्यूड में बांछित बदलाव नहीं होता है। जो भी हो, एक भारी उथल-पुथल का दौर तो शुरू हो ही चुका है।