आजकल भारतीय परिदृश्य में सब से ज्यादा चर्चा असहिष्णुता और सहिष्णुता पर हो रही है। असहिष्णुता और सहिष्णुता का सवाल अचानक महत्त्वपूर्ण हो कर भारतीय मन को बहुत जोर से मथ रहा है। जाहिर है, इसे गहराई से समझना होगा। क्या है सहिष्णुता? क्या शोषण और अन्याय को बर्दाश्त करना सहिष्णुता और उनका किसी भी स्तर तथा प्रकार से विरोध या प्रतिकार की चेष्टा असहिष्णुता है? मुझे लगता है यह सभ्यता का बहुत ही अंदरुनी सवाल है और इस पर आरोप की शैली में उत्तेजित होकर विचार करना समस्या की समझ को उलझाव में ही डालता है। इसलिए, बिना किसी आरोप और उत्तेजना के दबाव में इस स्थिति को समझने की कोशिश जरूरी है।
पहली बात तो यह कि असहिष्णुता और सहिष्णुता का सवाल अचानक साल-दो-साल में उभरकर महत्त्वपूर्ण हो गया है, ऐसा मानना न सिर्फ ऐतिहासिक रूप से गलत है बल्कि इसके प्रति हमारे नजरिया के अगंभीर होने का सूचक भी है। हमें नकारात्मक सहिष्णुता और सकारात्मक असहिष्णुता के मर्म को समझना होगा। सहिष्णु भारतीय मन सदियों से शोषण और अन्याय को बर्दाश्त करता रहा है। शोषण और अन्याय को बर्दाश्त करना नकारात्मक सहिष्णुता का उदाहरण है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन या विश्व के कई आंदोलन सकारात्मक असहिष्णुता के उदाहरणों से भरे पड़े हैं। जी हाँ, विभिन्न क्षेत्र के पुरस्कृत लोगों के द्वारा पुरस्कारों का लौटाया जाना भी असहिष्णुता कै उदाहरण है, जी सकारात्मक असहिष्णुता के उदाहरण।
विषमता आधारित सभ्यता में स्वाभाविक रूप से समुदायों और व्यक्तियों के मन में अपनी स्थितियों और प्राप्तियों को लेकर लगातार असंतोष पनपता रहता है। असंतोष की गहरी मनःस्थिति में सकारात्मक असहिष्णुता की प्रवृत्तियाँ सक्रिय होती रहती हैं। विषमता आधारित सभ्यता की किसी भी शासन-प्रणाली और पद्धति में शासन और सत्ता का यह प्राथमिक कर्त्तव्य होता है कि वह समुदायों और व्यक्तियों के मन में उनकी स्थितियों और प्राप्तियों को लेकर लगातार उत्पन्न हो रहे असंतोष को लगातार दूर करते हुए सकारात्मक असहिष्णुता की बढ़ती प्रवृत्तियों की सक्रियताओं को रोकने की कोशिश करे। ध्यान रहे, ऐसा इसलिए कि सकारात्मकता असहिष्णुता की सहज संगी नहीं होती है और कभी भी असहिष्णुता का साथ छोड़ दे सकती है। जनतंत्र सकारात्मक असहिष्णुता की बढ़ती प्रवृत्तियों की सक्रियताओं को रोकने की दृष्टि से ही लगातार महत्त्वपूर्ण बना रहा है। विषमता आधारित सभ्यता में समुदायों और व्यक्तियों में जायज असंतोष और सकारात्मक असहिष्णुता का भाव स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता रहता है इसलिए शासन-प्रणाली और पद्धति को प्रयास करते रहना पड़ता है कि सकारात्मकता किसी भी हाल में असहिष्णुता से विच्छिन्न न होने पाये, अन्यथा नागरिक जीवन किसी भारी उथल-पुथल या रक्तपात के दौर में पहुँच सकता है। सकारात्मकता किन्हीं परिस्थितियों में यदि असहिष्णुता से विच्छिन्न हो जाती है सहिष्णुता की नकारात्मकता भी साथ छोड़ देती है। रणनीतिक तौर पर, शोषण मुक्ति और न्याय के आश्वासन के साथ विषमता आधारित व्यवस्था में शासन के लिए जरूरी होता है कि सहिष्णुता की नकारात्मकता को बनाये रखने के लिए असहिष्णुता की सकारात्मकता को समझे और सम्मान दे। भारत में अब तक की सरकारें यह काम बड़ी दक्षता से करती आई हैं! कहना न होगा कि ऐसा लगता है कि इस समय भारत की जनतांत्रिक व्यवस्था सहिष्णुता की नकारात्मकता और असहिष्णुता की सकारात्मकता दोनों को एक साथ समाप्त करने पर आमादा है, कम-से-कम इस प्रक्रिया को रोकने के प्रति गंभीर नहीं है। व्यवस्था के इस एटीट्यूड को प्रति गहरा असंतोष पनप रहा है। जाहिर है, सहिष्णुता की नकारात्मकता और असहिष्णुता की सकारात्मकता के फैलाव को आर्थिक समेत अन्य सामाजिक-सामुदायिक क्षेत्र को अपनी चपेट में लेने से रोक पाना कठिन होता जायेगा, यदि बहुत जल्दी पूरी शक्ति के साथ व्यवस्था के इस एटीट्यूड में बांछित बदलाव नहीं होता है। जो भी हो, एक भारी उथल-पुथल का दौर तो शुरू हो ही चुका है।
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बुधवार, 4 नवंबर 2015
क्या है सहिष्णुता और असहिष्णुता!
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