यह लकड़बग्घे की हँसी नहीं है, इस हँसी को पहचानिये साथी
---प्रफुल्ल कोलख्यान
अब कोई चाहे कुछ कहे, एक बात साफ है कि रोहित-कन्हैया के साथ एक नई पहल ने आकार लेना शुरु कर दिया है। रोहित-कन्हैया की गतिविधि इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि वह पब्लिक स्फीयर में घटित हुई है। हाँ, इस बात से इनकार करने का कोई मतलब नहीं कि पब्लिक स्फीयर की गतिविधियों का भी अपना एक राजनीतिक मिजाज होता ही है, और होना भी चाहिए। रोहित-कन्हैया की की गतिविधियों का भी अपना एक राजनीतिक मिजाज है। हाँ, रोहित-कन्हैया का इस तरह से उभार भारत की छात्र राजनीति में एक फेनोमिना की तरह है, लेकिन अभी इसे मैं गतिविधि कहना ही अधिक पसंद करूँगा। मेरे जैसे लोगों के लिए तो, यह इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि जिन बातों को अपने लेखों और कविताओं में समेटकर हम जनमानस को सौंपना चाहते थे, उन बातों को रोहित-कन्हैया की गतिविधि से नई उछाल मिली है। मीडिया कारक या फैक्टर तो है, लेकिन यह सोचना अधिक दिलचस्प हो सकता है कि यह मीडिया कारक पैदा कैसे हुआ। इसके कई बारीक रेशे हैं। इस रोहित-कन्हैया गतिविधि में कुछ बहुत ही महत्त्व की बातें जितनी तत्परता से उठी हैं, उतनी तत्परता से वे बातें न तो अनंतमूर्त्ति के प्रसंग से उठ सकी थी न सहिष्णुता-असहिष्णुता के मशविरे से ही उठ पाई थी। क्यों नहीं उठी या उठ पाई! इसके कई कारण हैं, कुछ का अनुमान कोई एक लगा सकता है और कुछ का अनुमान कोई दूसरा लगा सकता है। यह भी कि एक के लगाये सारे अनुमान से दूसरा सहमत हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है। कारणों के विश्लेषणों का अपना महत्त्व है। यह महत्त्व तो इसीलिए है न कि इससे कार्य को और उसकी पूरी प्रक्रिया के संदर्भ में परिणाम के नैतिक पक्ष को समझने में मदद मिले। जब प्रक्रिया और परिणाम इतने साफ हों तो कारणों के विश्लेषण का ऐतिहासिक महत्त्व चाहे जितना हो, ताताकालिक महत्त्व बहुत नहीं होता है। प्रक्रिया तथा परिणाम साफ हैं। कारणों के विश्लेषणों में उलझने का फिलहाल कोई बहुत मतलब नहीं है।
संविधान की प्रस्तावना की मूल भावना को, भावना के स्तर पर नहीं बल्कि शासन के विचार के स्तर पर जिस तत्परता से रोहित-कन्हैया ने उठाया है वह गौर करने के काबिल है। बस एक लाइन में यह कहकर कि रोहित-कन्हैया गतिविधि का मकसद देश से आजादी नहीं बल्कि देश में आजादी है, पूरे घटनाचक्र को देखने का ऐसा जादुई प्रिज्म उपलब्ध करवा दिया गया है कि फर्जी देश भक्ति की आत्मा, अगर हो तो, कायदे से कराह भी नहीं पा रही है। अद्भुत यह कि सोसल ट्रांसफॉरमोशन का अध्ययन करते हुए सोसल ट्रांसफॉरमेशन के लिए राजनीतिक उपकरण हासिल हो गया कुछ इस कदर कि कहि न जाय का कहिए।
छात्र राजनीति कोई वर्ग राजनीति नहीं होती --- न वर्ग-संघर्ष की राजनीति और न ही वर्ग-समन्वय की राजनीति। इसलिए, रोहित-कन्हैया गतिविधि अपने राजनीतिक निहितार्थों से दो हाथ ऊपर चल रही है। जितनी सहज समझदारी से मीडिया के सारे राजनीतिक सवालों के जबाव इस गतिविधि से मिल रहे हैं, वह अचरज में डालनेवाला है। कुछ हलचल ऐसी होती है जिसको उनका भी समर्थन प्राप्त होता है, जो उसमें सीधे शामिल नहीं होते हैं या जो सीधे उसकी सफलता के लाभग्राही नहीं होते हैं। ऐसी ही हलचल को आंदोलन कहते हैं । सक्रिय और चाक्षुष समर्थकों के आकार से कहीं बहुत बड़ा उसका निष्क्रिय लगनेवाला और अदृश्य समर्थकों का आकार जिस हलचल का होता है उसे आंदोलन कहते हैं। यदि ऐसा नहीं होता है तो वह सिर्फ हलचल या चहलपहल के रूप में याफिर लहर के रूप में ही उभर कर शांत हो जाता है। पिछले चुनाव में एक लहर थी, जिसे बहुत सारे नाम दिये जाते हैं, दिये जा सकते हैं। वह लहर तो थी जरूर लेकिन वह कोई आंदोलन नहीं था। किसी भी आंदोलन की यही माया है कि जिनके माथे पर फूल बरसता है उन्हें पता ही नहीं चलता कि माथा पर गिरनेवाला फूल कहाँ से आ रहा है और जिनके माथे पत्थर गिरता है उन्हें भी पता नहीं चलता कि उनके सिर गिरनेवाला यह पत्थर कहाँ से आ रहा है। पब्लिक स्फीयर की गतिविधि की विश्वसनीयता तब खतरे में पड़ जाती है जब अ-परिपक्व सामाजिक गतिविध राजनीतिक गतिविधि में अचानक बदल जाती है या बदल दी जाती है।
रोहित-कन्हैया गतिविधि में एक और बात पते की है कि वे छात्र अपनी पढ़ाई को जारी रखना चाहते हैं। वे यह समझते हैं कि छात्र राजनीति में सक्रियता का मतलब सत्ता की राजनीति में सीधे भागीदारी करना नहीं होता है बल्कि जीवन के जिस किसी भी सेवा क्षेत्र में वे जायें, समाज के आखिरी आदमी के हाथ तक न्याय की पहुँच को सहज सुलभ बनाने के प्रति दायित्वशील बनें। राजनीतिक सत्ता संवैधानिक प्रतिबद्धताओं के बावजूद इस में बाधा उत्पन्न करे तो उसका मुकाबला पब्लिक स्फीयर की ताकत या लोकशक्ति से कारने का साहस रखें। यह नहीं कि सत्ता बदलते ही नये सत्ताधीशों को पुराने सत्ताधीशों के सामने अपने सताये जाने की कहानी रखे और अपने पूर्व राजनीतिक प्रभुओं के समक्ष किये गये कायर आत्मसमर्पण के लिए शर्मिंदा होने के बदले पुरस्कार की कामना करता दिखे।
फिलहाल रोहित-कन्हैया गतिविधि भारतीय जनतंत्र की निश्च्छल हँसी है। हाँ, मैं समझता हूँ और स्वीकार भी करता हूँ कि इस हँसी पर छलनायकों के खतरे और भी हैं। इस हँसी पर खतरे चाहे जितने भी हों फिलहाल तो यह हँसी है, और इस हँसी पर मुझ जैसे मुरझाये लोगों को गर्व है। जीभ काटने, गोली मारने की जो बात करते हैं वे अपनी समझ के शांहशाह हैं। समझ के शाहंशाह के लिए तो राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी भी देश विरोधी, राष्ट्र विरोधी ही थे। इतने अधिक देश विरोधी, राष्ट्र विरोधी थे कि गोली मारकर हत्या कर दिये जाने के काबिल समझे लिए गये और समझ के शाहंशाह हत्यारे की पूजा के लिए मंदिर बनाने के लिए तत्पर हो गये। जीभ काटने और गोली मारने की बात करहनेवाले समझ के शाहंशाह गीता की बात तो बहुत करते हैं, लेकिन आत्मा के अनश्वर होने के अर्थ का मर्म शायद नहीं जानते। नहीं जानते कि मृत्यु क्या है और ना-मृत्यु क्या है। बहरहाल, रोहित-रोहित-कन्हैया गतिविधि की हँसी में शामिल नहीं हो सकते तो कोई बात नहीं, लेकिन एक जरा-सा मुस्कुराइये जरूर। चंद्रकांत देवताले की कविता को याद करें तो यह लकड़बग्घे की हँसी नहीं है, इस हँसी को पहचानिये साथी। यह लकड़बग्घे की हँसी नहीं है, शहीद कर दिये गये और शहादत के कगार पर खड़ा कर दिये गये आज के नौजवान संदर्भ की हँसी है। इस हँसी को आपकी मुस्कुराहट की सख्त जरूरत है। थोड़ा मुस्कुराइये न!
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