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रविवार, 29 मई 2016

कभी उतरा नहीं

महबूब क्या जो भूलकर भी अश्क में कभी उतरा नहीं
महबूब क्या जो मुस्कान के तरन्नुम में कभी उतरा नहीं

तेरी रहगुजर की मुझे क्या खबर मैं उधर से कभी गुजरा नहीं
अगरचे जानता हूँ जुल्म और जुमले का फर्क मुझ को खतरा नहीं

अजब तेरी तासीर कि समंदर प्यासा है मगर कतरा नही
आकाश को छूने की ललक, उतरा आकाश मैं कहूँ पिंजरा नहीं

अजाना दर्द, है जिसे जुबां की तलाश मैथिली का फकरा नहीं
इश्क का तरन्नुम वह कहिये सँवरा नहीं जो खुलकर बिखरा नहीं

बुधवार, 18 मई 2016

डर! डर के बाहर एक खूबसूरत एहसास है, डरपोक

अक्सर, रिश्तों की नजाकत को 'हारनेवाले' ही बचा ले जाते हैं...
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हम यह कम ही समझ पाते हैं कि जीवन की सार्थकता सिर्फ जीत में ही नहीं, कभी-कभी हार में भी मिल जाया करती है। गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा के दौर में तो 'जीत ही जीवन है' का मुहावरा चलता है। जीत और जीत किसी भी कीमत पर जीत! किसी भी कीमत पर जीत! हमारा अनुभव बताता है कि जिनके लिए किसी भी कीमत पर सिर्फ जीत ही जरूरी होती है वे न तो किसी एकलव्य का अंगूठा काटने से हिचकते हैं न किसी दधीचि की अस्थि माँगने से। जीत के नशे में यह पता ही कब चलता है कि ऐसा करते हुए वे भले ही जीतते हुए दिखें, लेकिन असल में सभ्यता हार रही होती है। याद करें कौन जीता था, सुकरात? बुद्ध? ईसा? कौन? हम कब देख पाते हैं कि सभ्यता को जीवनक्षम बनाने में हारनेवालों की भूमिका जीतनेवालों से बड़ी होती है! .. चलिए नागार्जुन की कविता का पाठ करते हैं कि 'हो न सके जो पूर्णकाम, उनको प्रणाम'... यह उपलब्ध न हो तो वह गाना सुन लेते हैं... 'ये लो मैं हारी पिया, हुई तेरी जीत रे...'
अक्सर, रिश्तों की नजाकत को 'हारनेवाले' ही बचा ले जाते हैं...