महबूब क्या जो भूलकर भी अश्क में कभी उतरा नहीं
महबूब क्या जो मुस्कान के तरन्नुम में कभी उतरा नहीं
तेरी रहगुजर की मुझे क्या खबर मैं उधर से कभी गुजरा नहीं
अगरचे जानता हूँ जुल्म और जुमले का फर्क मुझ को खतरा नहीं
अजब तेरी तासीर कि समंदर प्यासा है मगर कतरा नही
आकाश को छूने की ललक, उतरा आकाश मैं कहूँ पिंजरा नहीं
अजाना दर्द, है जिसे जुबां की तलाश मैथिली का फकरा नहीं
इश्क का तरन्नुम वह कहिये सँवरा नहीं जो खुलकर बिखरा नहीं
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