पटना में नरेन
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तय कार्यक्रम के अनुसार आज सुबह नरेन का फोन आया। फोन समय से पहले ही आ गया कि छोटे बेटे को बाइक से भेज दिया है तुम्हें लिवा लाने। मुझे याद आ गया वो दिन जब मेरा छोटा बेटा पहली बार नरेन के कंधे पर चढ़ कर कोलकाता का चिड़िया खाना घूम रहा था। वक्त कितनी तेजी से आगे निकल गया। आज नरेन का छोटा बेटा अनुराग बाइक से मुझे लेने आ रहा है! अनुराग अच्छा चित्र भी बनाता है, और भी कई गुन हैं उसमें। गुनी है।
पटना आया तो मेरे ध्यान में है कि यह वह शहर है जहाँ देश में कहीं से भी निकलनेवाली साहित्यिक पत्रिका कहीं से भी ज्यादा पढ़ी जाती रही है। हिंदी मैथिली के कई नाम और चेहरे जेहन में हैं कि उन से मिलना है। इनमें एक नाम और चेहरा हिंदी के सिद्ध गीतकार नचिकेता जी का भी है। उनके उन भजनों को भूलना मुश्किल है. एक समय वे भजन साहित्य की गीतात्मक अभिव्यक्ति की सराहनीय ऊँचाई पर थे। लेकिन जानकारी के अनुसार वे अब शारीरिक परेशानी के कारण बाहर कम ही निकलते हैं। जब उनसे पहली मुलाकात हुई थी तब मैं आलोचना में सक्रिय नहीं था। उनकी शिकायत थी कि हिंदी आलोचना ने गीत को कभी मुख्य धारा के साहित्य के रूप में नहीं स्वीकार किया। मैंने तब भी माना था कि वे सही कह रहे हैं। कबीरदास अपने लिखे को गीत कहते थे--- तुम जिन जानो गीत है, यह निज ब्रह्म विचार। यानी गीत तो है ही यह ब्रह्म विचार भी है। कबीर जयदेव को भी गुरु स्थान देते थे। कृष्ण काव्य की शक्ति के स्रोत में जो कई किताबें हैं उनमें गीत गोविंद का अपना महत्त्व है। जयदेव और कबीर के बीच के कवि विद्यापति भी अभिनव जयदेव कहलाते हैं। उनका साहित्य गीत शक्ति से ही मिथिला का कंठ हार और मैथिल ललना के राग विराग का साथी बना हुआ है। भारत की जिस एक साहित्यिक किताब को नोबेल पुरस्कार मिला है वह भी रवींद्रनाथ टैगोर की किताब गीत की है--- गीतांजलि। तो गीत को गंभीरता से लेना चाहिए। कहा तो था, लेकिन यह कहना भी आज नचिकेता जी से पहले मेरे मन में था कि मैं ने भी तो गीत पर नहीं लिखा है। प्रसंगवश बात उठी तो क्या कहूंगा! वहाँ गया तो कई लेखकों कवियों से मुलाकात हो गई। रंजीता सिंह, सुधा मिश्र, धनंजय श्रोत्रीय और कई लोग जो नचिकेता जी से मिलने आये थे। नचिकेता जी ने गीत की अनदेखी किये जाने की बात फिर उठा दी। आते समय कविकुंभ के तीन अंकों की प्रतियां मिल गई। नचिकेता जी के गीत की एक किताब भी मिली, इस पर अब न लिखा तो जानता हूँ कि अपराध होगा। तो इस तरह पटना में नरेन। लौटकर आया पिछले बीस साल की अपनी अपनी करनी और अकरनी पर बात की। कुछ निजी और पारिवारिक बातचीत भी हुई खास कर भाभी से।
चलने लगा तो नरेन ने कहा कि यार दिल नहीं भरा। मैं ने कहा उम्र हो गई है। तुम भी थोड़ा आराम कर लो और मैं भी जाकर थोड़ा सुस्ता लेता हूँ। आता जाता रहूँगा।
आ तो गया अपने अभी के ठिकाने पर। लेकिन याद आ रही है नरेन से पहली और पहले दौर की मुलाकातों की। वह सब फिर कभी, जल्दी ही।
अर्थात
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रविवार, 2 जुलाई 2017
पटना में नरेन
शुक्रवार, 10 जून 2016
साहित्य की सामाजिकता
साहित्य में जीवन के सामाजिक-आर्थिक प्रसंगों की झलक देखने की कोशिश की जानी चाहिए लेकिन साहित्य को इस झलक से सीमित कर देना उचित नहीं है। साहित्य प्रथमतः और अंततः वैयक्तिकता का निर्वैयक्तिक प्रसंग है। इस प्रथमतः और अंततः के बीच के निर्वैयक्तिकता के वैयक्तिक संदर्भों से ही पाठकों को उनका अपना पाठ, नितांत अपना पाठ उपलब्ध करवा सकने की क्षमता के कारण साहित्य महत्वपूर्ण होता है। इस वैयक्तिक पाठ के सामाजिक पाठ में बदल जाने से साहित्य सार्थक होता है। साहित्य की सामाजिकता व्यक्ति के समाज में समवेत होने की निष्पक्ष प्रक्रिया है।
रविवार, 29 मई 2016
कभी उतरा नहीं
महबूब क्या जो भूलकर भी अश्क में कभी उतरा नहीं
महबूब क्या जो मुस्कान के तरन्नुम में कभी उतरा नहीं
तेरी रहगुजर की मुझे क्या खबर मैं उधर से कभी गुजरा नहीं
अगरचे जानता हूँ जुल्म और जुमले का फर्क मुझ को खतरा नहीं
अजब तेरी तासीर कि समंदर प्यासा है मगर कतरा नही
आकाश को छूने की ललक, उतरा आकाश मैं कहूँ पिंजरा नहीं
अजाना दर्द, है जिसे जुबां की तलाश मैथिली का फकरा नहीं
इश्क का तरन्नुम वह कहिये सँवरा नहीं जो खुलकर बिखरा नहीं
बुधवार, 18 मई 2016
डर! डर के बाहर एक खूबसूरत एहसास है, डरपोक
अक्सर, रिश्तों की नजाकत को 'हारनेवाले' ही बचा ले जाते हैं...
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हम यह कम ही समझ पाते हैं कि जीवन की सार्थकता सिर्फ जीत में ही नहीं, कभी-कभी हार में भी मिल जाया करती है। गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा के दौर में तो 'जीत ही जीवन है' का मुहावरा चलता है। जीत और जीत किसी भी कीमत पर जीत! किसी भी कीमत पर जीत! हमारा अनुभव बताता है कि जिनके लिए किसी भी कीमत पर सिर्फ जीत ही जरूरी होती है वे न तो किसी एकलव्य का अंगूठा काटने से हिचकते हैं न किसी दधीचि की अस्थि माँगने से। जीत के नशे में यह पता ही कब चलता है कि ऐसा करते हुए वे भले ही जीतते हुए दिखें, लेकिन असल में सभ्यता हार रही होती है। याद करें कौन जीता था, सुकरात? बुद्ध? ईसा? कौन? हम कब देख पाते हैं कि सभ्यता को जीवनक्षम बनाने में हारनेवालों की भूमिका जीतनेवालों से बड़ी होती है! .. चलिए नागार्जुन की कविता का पाठ करते हैं कि 'हो न सके जो पूर्णकाम, उनको प्रणाम'... यह उपलब्ध न हो तो वह गाना सुन लेते हैं... 'ये लो मैं हारी पिया, हुई तेरी जीत रे...'
अक्सर, रिश्तों की नजाकत को 'हारनेवाले' ही बचा ले जाते हैं...
शनिवार, 5 मार्च 2016
यह लकड़बग्घे की हँसी नहीं है, इस हँसी को पहचानिये साथी
यह लकड़बग्घे की हँसी नहीं है, इस हँसी को पहचानिये साथी
---प्रफुल्ल कोलख्यान
अब कोई चाहे कुछ कहे, एक बात साफ है कि रोहित-कन्हैया के साथ एक नई पहल ने आकार लेना शुरु कर दिया है। रोहित-कन्हैया की गतिविधि इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि वह पब्लिक स्फीयर में घटित हुई है। हाँ, इस बात से इनकार करने का कोई मतलब नहीं कि पब्लिक स्फीयर की गतिविधियों का भी अपना एक राजनीतिक मिजाज होता ही है, और होना भी चाहिए। रोहित-कन्हैया की की गतिविधियों का भी अपना एक राजनीतिक मिजाज है। हाँ, रोहित-कन्हैया का इस तरह से उभार भारत की छात्र राजनीति में एक फेनोमिना की तरह है, लेकिन अभी इसे मैं गतिविधि कहना ही अधिक पसंद करूँगा। मेरे जैसे लोगों के लिए तो, यह इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि जिन बातों को अपने लेखों और कविताओं में समेटकर हम जनमानस को सौंपना चाहते थे, उन बातों को रोहित-कन्हैया की गतिविधि से नई उछाल मिली है। मीडिया कारक या फैक्टर तो है, लेकिन यह सोचना अधिक दिलचस्प हो सकता है कि यह मीडिया कारक पैदा कैसे हुआ। इसके कई बारीक रेशे हैं। इस रोहित-कन्हैया गतिविधि में कुछ बहुत ही महत्त्व की बातें जितनी तत्परता से उठी हैं, उतनी तत्परता से वे बातें न तो अनंतमूर्त्ति के प्रसंग से उठ सकी थी न सहिष्णुता-असहिष्णुता के मशविरे से ही उठ पाई थी। क्यों नहीं उठी या उठ पाई! इसके कई कारण हैं, कुछ का अनुमान कोई एक लगा सकता है और कुछ का अनुमान कोई दूसरा लगा सकता है। यह भी कि एक के लगाये सारे अनुमान से दूसरा सहमत हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है। कारणों के विश्लेषणों का अपना महत्त्व है। यह महत्त्व तो इसीलिए है न कि इससे कार्य को और उसकी पूरी प्रक्रिया के संदर्भ में परिणाम के नैतिक पक्ष को समझने में मदद मिले। जब प्रक्रिया और परिणाम इतने साफ हों तो कारणों के विश्लेषण का ऐतिहासिक महत्त्व चाहे जितना हो, ताताकालिक महत्त्व बहुत नहीं होता है। प्रक्रिया तथा परिणाम साफ हैं। कारणों के विश्लेषणों में उलझने का फिलहाल कोई बहुत मतलब नहीं है।
संविधान की प्रस्तावना की मूल भावना को, भावना के स्तर पर नहीं बल्कि शासन के विचार के स्तर पर जिस तत्परता से रोहित-कन्हैया ने उठाया है वह गौर करने के काबिल है। बस एक लाइन में यह कहकर कि रोहित-कन्हैया गतिविधि का मकसद देश से आजादी नहीं बल्कि देश में आजादी है, पूरे घटनाचक्र को देखने का ऐसा जादुई प्रिज्म उपलब्ध करवा दिया गया है कि फर्जी देश भक्ति की आत्मा, अगर हो तो, कायदे से कराह भी नहीं पा रही है। अद्भुत यह कि सोसल ट्रांसफॉरमोशन का अध्ययन करते हुए सोसल ट्रांसफॉरमेशन के लिए राजनीतिक उपकरण हासिल हो गया कुछ इस कदर कि कहि न जाय का कहिए।
छात्र राजनीति कोई वर्ग राजनीति नहीं होती --- न वर्ग-संघर्ष की राजनीति और न ही वर्ग-समन्वय की राजनीति। इसलिए, रोहित-कन्हैया गतिविधि अपने राजनीतिक निहितार्थों से दो हाथ ऊपर चल रही है। जितनी सहज समझदारी से मीडिया के सारे राजनीतिक सवालों के जबाव इस गतिविधि से मिल रहे हैं, वह अचरज में डालनेवाला है। कुछ हलचल ऐसी होती है जिसको उनका भी समर्थन प्राप्त होता है, जो उसमें सीधे शामिल नहीं होते हैं या जो सीधे उसकी सफलता के लाभग्राही नहीं होते हैं। ऐसी ही हलचल को आंदोलन कहते हैं । सक्रिय और चाक्षुष समर्थकों के आकार से कहीं बहुत बड़ा उसका निष्क्रिय लगनेवाला और अदृश्य समर्थकों का आकार जिस हलचल का होता है उसे आंदोलन कहते हैं। यदि ऐसा नहीं होता है तो वह सिर्फ हलचल या चहलपहल के रूप में याफिर लहर के रूप में ही उभर कर शांत हो जाता है। पिछले चुनाव में एक लहर थी, जिसे बहुत सारे नाम दिये जाते हैं, दिये जा सकते हैं। वह लहर तो थी जरूर लेकिन वह कोई आंदोलन नहीं था। किसी भी आंदोलन की यही माया है कि जिनके माथे पर फूल बरसता है उन्हें पता ही नहीं चलता कि माथा पर गिरनेवाला फूल कहाँ से आ रहा है और जिनके माथे पत्थर गिरता है उन्हें भी पता नहीं चलता कि उनके सिर गिरनेवाला यह पत्थर कहाँ से आ रहा है। पब्लिक स्फीयर की गतिविधि की विश्वसनीयता तब खतरे में पड़ जाती है जब अ-परिपक्व सामाजिक गतिविध राजनीतिक गतिविधि में अचानक बदल जाती है या बदल दी जाती है।
रोहित-कन्हैया गतिविधि में एक और बात पते की है कि वे छात्र अपनी पढ़ाई को जारी रखना चाहते हैं। वे यह समझते हैं कि छात्र राजनीति में सक्रियता का मतलब सत्ता की राजनीति में सीधे भागीदारी करना नहीं होता है बल्कि जीवन के जिस किसी भी सेवा क्षेत्र में वे जायें, समाज के आखिरी आदमी के हाथ तक न्याय की पहुँच को सहज सुलभ बनाने के प्रति दायित्वशील बनें। राजनीतिक सत्ता संवैधानिक प्रतिबद्धताओं के बावजूद इस में बाधा उत्पन्न करे तो उसका मुकाबला पब्लिक स्फीयर की ताकत या लोकशक्ति से कारने का साहस रखें। यह नहीं कि सत्ता बदलते ही नये सत्ताधीशों को पुराने सत्ताधीशों के सामने अपने सताये जाने की कहानी रखे और अपने पूर्व राजनीतिक प्रभुओं के समक्ष किये गये कायर आत्मसमर्पण के लिए शर्मिंदा होने के बदले पुरस्कार की कामना करता दिखे।
फिलहाल रोहित-कन्हैया गतिविधि भारतीय जनतंत्र की निश्च्छल हँसी है। हाँ, मैं समझता हूँ और स्वीकार भी करता हूँ कि इस हँसी पर छलनायकों के खतरे और भी हैं। इस हँसी पर खतरे चाहे जितने भी हों फिलहाल तो यह हँसी है, और इस हँसी पर मुझ जैसे मुरझाये लोगों को गर्व है। जीभ काटने, गोली मारने की जो बात करते हैं वे अपनी समझ के शांहशाह हैं। समझ के शाहंशाह के लिए तो राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी भी देश विरोधी, राष्ट्र विरोधी ही थे। इतने अधिक देश विरोधी, राष्ट्र विरोधी थे कि गोली मारकर हत्या कर दिये जाने के काबिल समझे लिए गये और समझ के शाहंशाह हत्यारे की पूजा के लिए मंदिर बनाने के लिए तत्पर हो गये। जीभ काटने और गोली मारने की बात करहनेवाले समझ के शाहंशाह गीता की बात तो बहुत करते हैं, लेकिन आत्मा के अनश्वर होने के अर्थ का मर्म शायद नहीं जानते। नहीं जानते कि मृत्यु क्या है और ना-मृत्यु क्या है। बहरहाल, रोहित-रोहित-कन्हैया गतिविधि की हँसी में शामिल नहीं हो सकते तो कोई बात नहीं, लेकिन एक जरा-सा मुस्कुराइये जरूर। चंद्रकांत देवताले की कविता को याद करें तो यह लकड़बग्घे की हँसी नहीं है, इस हँसी को पहचानिये साथी। यह लकड़बग्घे की हँसी नहीं है, शहीद कर दिये गये और शहादत के कगार पर खड़ा कर दिये गये आज के नौजवान संदर्भ की हँसी है। इस हँसी को आपकी मुस्कुराहट की सख्त जरूरत है। थोड़ा मुस्कुराइये न!
मंगलवार, 12 जनवरी 2016
बचपन की बुनियाद
रविवार, 6 दिसंबर 2015
खास नहीं
मेरी जिंदगी को कभी खास मय्यसर नहीं, हाँ घास की बात और है
जो देखा खास नजर से, आसमानी हो गया, हाँ आसपास की बात और है