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गुरुवार, 22 अक्टूबर 2015

ये क्या कह दिया आपने

ये क्या कह गये आप ! आप हमारी सेना के कर्णधार रहे हैं। हम तो यह मानते रहे हैं कि सेना हमारी रक्षा के लिए प्राण की बाजी लगाकर हर हाल में दिन रात चौकस रहते हैं। आप अपढ़ नहीं हैं और न बेलगाम! आप जिस संस्था के शिरमौर रहे वह पूरी दुनिया में अनुशासन के लिए भी विख्यात है। राजनीतिक दाँव-पेंच से बहुधा संत्रस्त इस देश के लोग उम्मीद करते हैं कि जब इस तरह की संस्था के लोग सार्वजनिक जीवन में महत्त्वपूर्ण दायित्व सम्हालेंगे तो इससे हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था की राजनीतिक गुणवत्ता निश्चित रूप से बेहतर होगी। हमें मालूम है कि जिस संस्था से आप आये हैं उस के सदस्य इस मानसिकता के नहीं होते हैं। कौन किस का मुँह रोक सकता है! कहनेवाले तो यह तक कह देंगे कि चाहे जितने अनुशासित और उच्च पद पर जीवन क्यों न बिताये कुछ जन्मजात संस्कार नहीं बदलते हैं।
जिन लोगों ने यह बर्बर काम किया वे तो मानवता के दोषी हैं ही लेकिन, आपको पता नहीं शायद, अपने एक वाक्य के बयान से आपने जिंदा जलाकर मार दिये गये उन दो बच्चों की चिता की राख संविधान, शासन, राष्ट्र ही नहीं पूरी मानव सभ्यता के मुँह पर मल दिया। आपकी जमात के लोग आपके साथ क्या सलूक करेंगे ये तो वे ही जानें; हमें तो मुँह दिखाने के काबिल नहीं छोड़ा! हम साधारण नागरिक हतप्रभ हैं! कहाँ है वह नागरिक जमात जिसकी डोरी पकड़ आप सार्वजनिक जीवन में दाखिल हुए? क्या नागरिक जमात से कोई उम्मीद की जानी चाहिए! फिलहाल तो आत्म-धिक्कार के अर्थात के सिवा हमारे हाथ में कुछ नहीं है... कुछ नहीं अर्थात कुछ नहीं!

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