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शुक्रवार, 23 अक्टूबर 2015

आत्म-हीनता के दल-दल में

राष्ट्र राज्यों की राजनीतिक संप्रभुताओं के स्थान पर कॉरपोरेटीय धारकताओं और निर्भरताओं पर भरोसा करने से आधुनिक राष्ट्र राज्यों के बीच आशंकित युद्धों का रूप भले बदल जाये लेकिन इससे उसके प्रभाव की भयावहता के कम होने की कोई संभावना नहीं बनती है। भयावह यह कि ऐसा प्रभाव छोटे-छोटे स्तर पर निरंतर चलनेवाले विश्व-गृह-युद्ध को आमंत्रित करता है। क्योंकि समस्या एक ही सामाजिकता के विखंडित हित समूहों के बीच आपसी टकराहट के रूप में उभरती है। इस टकाराहट को रोकने में न राष्ट्रों की भौगालिक सीमाएँ, न अनुल्लंघ्य संप्रभुता के तर्क से उत्पन्न नैतिकता और न सामाजिकताओं के सांस्कृतिक-आवरणों के बीच विकसित आत्मबद्धता का सुरक्षा-कवच ही काम आता है। उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण विकास का बहुत बड़ा नेपथ्य तैयार करता है। विकास का यह नेपथ्य परम गरीबी का क्षेत्र है। आज के समय में बहुत तेजी से परम गरीबी का क्षेत्रफल बढ़ता जा रहा है। इसका सीधा और साफ-साफ मतलब यह समझना चाहिए कि आज का समय बहुत बड़ी मानवीय आबादी को अमानव या अर्द्ध-मानव बनाये जाने की क्रूर प्रक्रिया के जारी रहने का समय है! आज के समय में विकास का जो नाटक चल रहा है उसके नेपथ्य के हाहाकार को मन से सुनकर इसका अर्थ ठीक से न समझा गया तो सभ्यता की नाभिकीय संरचना में होनेवाले विस्फोट को नहीं रोका जा सकेगा। दर्द के दरिया से गुजरते आज के समय के हाहाकार को सुन पा रहे हैं हमलोग! उत्तर आसान नहीं है! आत्म-चिंतन के साथ ही आत्मालोचन भी करना होगा। हमारे के समय के महाप्रभु आत्म-मंथन के लिए समूह में प्रस्तुत होते तो हैं लेकिन गहरे आत्म-चिंतन और निश्च्छल आत्मालोचन के अभाव में कुछ भी कारगर हाथ नहीं आता है! कुछ हाथ आये भी कैसे! आत्म-हीनता के दल-दल में फँसे लोगों का क्या तो आत्म-चिंतन और क्या तो आत्मालोचन, आत्म-मंथन! सबसे पहले जरूरी है आत्माभिज्ञान और आत्मान्वेषण; पहचानना जरूरी है ‘हमलोग’ के उस ‘आत्म’ को जिसने भारत के संविधान को आत्मार्पित किया था। कठिन सवाल यह कि क्या ‘हमलोग’ के उस ‘आत्म’ को पहचान पा रहे हैं हमारे महाप्रभु! बहुत संघर्ष के बाद मनुष्य ने आज तक की जय यात्रा की है। वह इतनी आसानी से हार नहीं मानेगा। यह सच है। लेकिन, यदि हम इस करुण हाहाकार को ठीक-ठीक सुन पा रहे हैं तो गाहे-बगाहे हम समय की सवारी कर रहे लोगों के जयकार से विमोहित क्यों हो जाते हैं! इस हाहाकार को श्रव्य बनाना और जयकार के सम्मोहन को तोड़ना आज के संस्कृतिकर्मी के सामने मुँह बाये खड़ी कई बड़ी चुनौतियों में से एक है।

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